सीजेआई गवई का बयान: न्यायिक सक्रियता न्यायिक आतंकवाद में नहीं बदलनी चाहिए, सीमाओं का रखें ध्यान
भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) जस्टिस बी. आर. गवई ने बुधवार को न्यायिक सक्रियता के महत्व पर जोर देते हुए न्यायपालिका को उसकी सीमाओं का भी ध्यान रखने की सलाह दी। ऑक्सफोर्ड यूनियन में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा, "न्यायिक सक्रियता को न्यायिक आतंकवाद में नहीं बदलना चाहिए।" यह बयान न्यायपालिका के हस्तक्षेप की सीमा और उसके उचित दायरे को रेखांकित करता है।
न्यायिक हस्तक्षेप की सीमाएं
सीजेआई गवई ने अपनी बात को स्पष्ट करते हुए कहा, "कभी-कभी न्यायपालिका अपनी सीमाएं पार करने की कोशिश करती है और उन क्षेत्रों में प्रवेश कर जाती है, जहां सामान्यतः उसे नहीं जाना चाहिए।" उनका यह कथन न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका और विधायिका के कार्यक्षेत्रों में अनावश्यक हस्तक्षेप से बचने की आवश्यकता पर बल देता है।
हालांकि, उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि यदि विधायिका या कार्यपालिका नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा में विफल रहती है, तो न्यायपालिका को ऐसे मामलों में हस्तक्षेप करना पड़ेगा। उन्होंने कहा कि ऐसे हालात में न्यायालय का दखल आवश्यक हो जाता है। लेकिन, सीजेआई ने यह भी स्पष्ट किया कि न्यायिक पुनरावलोकन (Judicial Review) की शक्ति का प्रयोग बहुत ही सीमित और अपवाद स्वरूप मामलों में ही किया जाना चाहिए, जब कोई स्पष्ट संवैधानिक उल्लंघन हो।
न्यायालय के हस्तक्षेप के आधार
सीजेआई गवई ने उन विशिष्ट परिस्थितियों का उल्लेख किया जब न्यायालय कानून में हस्तक्षेप कर सकते हैं। उन्होंने कहा, "जब कोई कानून संविधान की मूल संरचना (Basic Structure) के विरुद्ध हो या मौलिक अधिकारों से सीधे टकराता हो या फिर यदि कोई कानून स्पष्ट रूप से मनमाना और भेदभावपूर्ण हो, तो न्यायालय इसमें हस्तक्षेप कर सकते हैं और उन्होंने ऐसा किया भी है।" यह सिद्धांत भारतीय न्यायपालिका की महत्वपूर्ण भूमिका को दर्शाता है, जिसमें वह संविधान की सर्वोच्चता और नागरिकों के अधिकारों की संरक्षक के रूप में कार्य करती है।
संविधान: एक 'शांत क्रांति' और व्यक्तिगत अनुभव
अपने व्यक्तिगत अनुभव को साझा करते हुए, सीजेआई गवई ने भारतीय संविधान की शक्ति और परिवर्तनकारी क्षमता को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि भारत के संविधान ने यह संभव बनाया है कि अनुसूचित जाति से आने वाला एक व्यक्ति, जिसे ऐतिहासिक रूप से 'अस्पृश्य' कहा जाता था, आज देश के सर्वोच्च न्यायिक पद (प्रधान न्यायाधीश) पर बैठकर ऑक्सफोर्ड यूनियन जैसे प्रतिष्ठित मंच को संबोधित कर रहा है। यह भारतीय समाज में हुए गहरे सामाजिक परिवर्तनों और संविधान की समावेशी भावना का एक सशक्त प्रमाण है।
सीजेआई ने भारतीय संविधान को "स्याही में उकेरी गई एक शांत क्रांति" करार दिया। उन्होंने कहा कि इसमें समाज के उन वर्गों की धड़कनें हैं, जिन्हें कभी सुना नहीं गया। उनका यह कथन संविधान की उस भूमिका को दर्शाता है जिसमें वह केवल नियमों का एक समूह नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय और समानता का एक जीवंत दस्तावेज है।
उन्होंने जोर देकर कहा, "संविधान केवल अधिकारों की रक्षा करने को नहीं कहता, बल्कि सक्रिय रूप से आगे बढ़ने, सशक्त करने और सुधारने के लिए भी बाध्य करता है।" यह दर्शाता है कि भारतीय संविधान केवल अधिकारों को संरक्षित करने वाला नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक प्रगति के लिए एक गतिशील शक्ति भी है, जो हाशिए पर पड़े वर्गों को सशक्त बनाने और समाज में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए न्यायपालिका सहित सभी अंगों को प्रेरित करता है।