मुंबई, 20 जुलाई। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में जब बात दिल को छू लेने वाले गीतों की होती है, तो आनंद बक्शी का नाम सबसे ऊपर आता है। उन्होंने अपने लगभग 40 साल लंबे करियर में चार हज़ार से भी ज्यादा गाने लिखे, जो आम बोलचाल की भाषा में होते थे और सीधे दिलों तक पहुंचते थे। उनका लेखन प्यार, दर्द, दोस्ती और देशभक्ति जैसे हर भाव को बड़ी सहजता और सादगी से बयां करता था।
हालांकि, इतने सफल करियर के बावजूद एक समय ऐसा भी आया जब आनंद बक्शी को अपने ही एक गाने पर अफसोस हुआ। यह किस्सा 1983 में आई फिल्म ‘अंधा कानून’ से जुड़ा है। उनके बेटे राकेश आनंद बक्शी ने यह बात अपनी किताब 'नग्मे, किस्से, बातें, यादें' में बताई है। दरअसल, इस फिल्म में अमिताभ बच्चन ने एक मुस्लिम किरदार ‘जां निसार खान’ का रोल निभाया था, लेकिन आनंद बक्शी को यह जानकारी नहीं दी गई थी।
निर्देशक ने जब आनंद बक्शी को कहानी सुनाई, तो उन्होंने सिर्फ अमिताभ बच्चन का नाम बताया, मगर यह नहीं बताया कि उनका किरदार किस धर्म से है। इस जानकारी के अभाव में बक्शी साहब ने एक गीत लिखा — ‘रोते-रोते हंसना सीखो, हंसते-हंसते रोना, जितनी चाभी भरी राम ने, उतना चले खिलौना।’ इस गीत में ‘राम’ शब्द का प्रयोग भगवान श्रीराम के संदर्भ में किया गया था।
बाद में जब उन्हें पता चला कि अमिताभ का किरदार एक मुस्लिम शख्स का है, तो उन्हें इस बात का अफसोस हुआ। उन्होंने अपने बेटे से कहा, “मुझसे गलती हो गई। मुझे निर्देशक से यह जरूर पूछना चाहिए था कि किरदार का मजहब क्या है। अगर मुझे पता होता कि अमिताभ एक मुस्लिम किरदार निभा रहे हैं, तो मैं गीत को उस तहजीब और मजहब के अनुसार लिखता।”
यह अफसोस एक ऐसे गीतकार का था जो अपने शब्दों की गरिमा और किरदार की सच्चाई को लेकर बेहद सजग था। यही वह ईमानदारी थी जिसने आनंद बक्शी को हिंदी सिनेमा के सबसे बड़े और सबसे भरोसेमंद गीतकारों में शुमार किया।
आनंद बक्शी का जन्म 21 जुलाई 1930 को रावलपिंडी (अब पाकिस्तान में) में हुआ था। भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद उनका परिवार लखनऊ में बस गया। बचपन से ही उन्हें शब्दों और शायरी से प्रेम था। फिल्मों में करियर बनाने का सपना लेकर वे नौसेना में भर्ती हुए ताकि मुंबई आने का रास्ता मिले। असली मकसद यही था — फिल्मी दुनिया में अपने गीतों की पहचान बनाना।
उनका करियर 1958 में फिल्म ‘भला आदमी’ से शुरू हुआ। उन्हें चार गानों के लिए कुल 150 रुपये मिले थे। असली सफलता 1965 में फिल्म ‘जब जब फूल खिले’ से मिली। इस फिल्म के गीत — ‘ये समां समां है ये प्यार का’, ‘परदेसियों से ना अखियां मिलाना’ और ‘एक था गुल और एक थी बुलबुल’ — उन्हें सीधे लोकप्रियता की ऊंचाइयों तक ले गए।
आनंद बक्शी ने अपने करियर में कई यादगार गीत लिखे, जिनमें ‘मेरे महबूब कयामत होगी’, ‘चिट्ठी न कोई संदेश’, ‘रूप तेरा मस्ताना’, ‘मैं शायर तो नहीं’, ‘तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो’, ‘झूठ बोले कौआ काटे’, ‘तुझे देखा तो ये जाना सनम’, और ‘इश्क बिना क्या जीना यारों’ जैसे गीत शामिल हैं। उनकी खासियत थी — सरल भाषा, गहरी भावना और सच्चाई से भरा लेखन।
उन्होंने संघर्ष के दौर से शुरुआत की थी, लेकिन कभी हार नहीं मानी। जीवन के अंतिम समय तक वे सक्रिय रहे और 30 मार्च 2002 को इस दुनिया को अलविदा कह गए।
The Trending People का निष्कर्ष:
आनंद बक्शी सिर्फ एक गीतकार नहीं थे, बल्कि भारतीय जनमानस के जज़्बातों के सच्चे प्रवक्ता थे। उनके गीतों में भावनाओं की सादगी और गहराई दोनों मिलती हैं। ‘अंधा कानून’ के गाने को लेकर उनकी आत्मस्वीकृति यह दिखाती है कि वे केवल एक शायर नहीं, बल्कि एक संवेदनशील और ज़िम्मेदार कलाकार भी थे। उनके गीत आज भी ज़िंदा हैं और आने वाली पीढ़ियों को न केवल गुनगुनाने बल्कि सोचने का भी अवसर देते हैं।