गब्बर से नवाब वाजिद अली शाह तक: अमजद ख़ान की अभिनय यात्रा जो आज भी जीवंत है
भारतीय सिनेमा में कुछ किरदार और अभिनेता ऐसे होते हैं जो समय के साथ नहीं मिटते, बल्कि पीढ़ियों के दिलों में हमेशा जीवित रहते हैं। अमजद ख़ान ऐसे ही कलाकारों में से एक हैं। 27 जुलाई 1992 को मात्र 51 वर्ष की आयु में दुनिया से विदा लेने वाले अमजद ख़ान ने अपने अभिनय के ज़रिए सिनेमा में जो छाप छोड़ी, वह आज भी उतनी ही ताज़ा है। 'शोले' फिल्म का 'गब्बर सिंह' सिर्फ एक किरदार नहीं, बल्कि भारतीय पॉप कल्चर का हिस्सा बन गया है। लेकिन अमजद ख़ान की प्रतिभा सिर्फ खलनायकी तक सीमित नहीं रही — उन्होंने गंभीर, संवेदनशील और ऐतिहासिक किरदारों को भी उसी दमदारी से निभाया।
गब्बर सिंह: एक खलनायक, जो नायक बन गया
1975 में रिलीज़ हुई रमेश सिप्पी की फिल्म 'शोले' में अमजद ख़ान ने डाकू सरदार 'गब्बर सिंह' का जो किरदार निभाया, उसने हिन्दी सिनेमा के खलनायकों की परिभाषा ही बदल दी। “अरे ओ सांभा!”, “कितने आदमी थे?”, “जो डर गया, समझो मर गया” जैसे संवाद आज भी लोगों की ज़ुबान पर हैं। दिलचस्प बात यह है कि शोले के निर्देशक रमेश सिप्पी पहले डैनी डेन्जोंगपा को गब्बर के रोल में लेना चाहते थे, लेकिन जब डैनी व्यस्त हो गए, तो अमजद ख़ान को यह मौका मिला — और यही मौका अमजद की किस्मत बन गया।
अमजद की आवाज़, बॉडी लैंग्वेज और उनके आंखों की क्रूर चमक ने गब्बर सिंह को फिल्म इतिहास का सबसे डरावना लेकिन सबसे यादगार खलनायक बना दिया। यह किरदार इतना प्रभावी था कि इसके बाद दशकों तक खलनायक गब्बर की छवि में गढ़े गए।
कला के अन्य रंग: केवल खलनायक नहीं थे अमजद
अमजद ख़ान को सिर्फ 'गब्बर सिंह' के किरदार तक सीमित करना उनके विशाल अभिनय कौशल के साथ अन्याय होगा। उन्होंने 'मुकद्दर का सिकंदर', 'लावारिस', 'याराना', 'सत्ते पे सत्ता', 'कालिया', 'शराबी' जैसी फिल्मों में भी शानदार भूमिकाएं निभाईं। वह केवल खलनायक नहीं थे, उन्होंने हास्य और गंभीर भूमिकाओं में भी अपनी अभिनय क्षमता का लोहा मनवाया।
1989 में बनी सत्यजित रे की फिल्म 'शतरंज के खिलाड़ी' में उन्होंने नवाब वाजिद अली शाह का किरदार निभाया। यह किरदार बेहद संवेदनशील और ऐतिहासिक था — एक ऐसे नवाब की भूमिका, जो अंग्रेजों के सामने झुक जाता है लेकिन अपनी कला, संगीत और नज़ाकत से कभी समझौता नहीं करता। अमजद ख़ान ने इस भूमिका को इतनी शालीनता और गहराई से निभाया कि उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सराहना मिली।
एक बुद्धिजीवी और लेखक भी
बहुत कम लोगों को पता है कि अमजद ख़ान केवल अभिनेता नहीं थे, बल्कि एक बुद्धिजीवी और लेखक भी थे। उन्होंने नाटक और साहित्य में भी गहरी रुचि दिखाई। वे खुद कई कहानियां और पटकथाएं लिखा करते थे। उनका संवादों को बोलने का अंदाज़, उनकी पढ़ाई-लिखाई और सोच का ही परिणाम था। वह अपने किरदारों को स्क्रिप्ट से ऊपर उठाकर नई पहचान देने की कला में माहिर थे।
फिल्म निर्देशन और सामाजिक चेतना
1981 में अमजद ख़ान ने फिल्म 'चोर पुलिस' का निर्देशन भी किया। हालांकि फिल्म को बहुत अधिक व्यावसायिक सफलता नहीं मिली, लेकिन इससे उन्होंने साबित किया कि वह कैमरे के पीछे भी अपनी सोच और रचनात्मकता से दर्शकों को प्रभावित कर सकते हैं।
वह फिल्मों के माध्यम से सामाजिक मुद्दों को भी उठाने के पक्षधर थे। वह महिला सशक्तिकरण, गरीबी और सामाजिक असमानताओं पर चर्चा करना पसंद करते थे और कई बार अपने इंटरव्यू में इन मुद्दों को खुलकर सामने रखते थे।
परिवार और निजी जीवन
अमजद ख़ान का जन्म 12 नवम्बर 1940 को पेशावर (अब पाकिस्तान में) हुआ था। उनके पिता जयंत ख़ान भी एक मशहूर अभिनेता थे। अमजद ने 1972 में शेहला ख़ान से शादी की और उनके तीन बच्चे हुए, जिनमें अभिनेता शादाब ख़ान भी शामिल हैं। वह अपने परिवार के बेहद करीब थे और अपने बच्चों की परवरिश में पूरी दिलचस्पी लेते थे।
अचानक मृत्यु और अधूरी यात्रा
27 जुलाई 1992 को मुंबई में अमजद ख़ान की दिल का दौरा पड़ने से मृत्यु हो गई। वह एक फिल्म की शूटिंग कर रहे थे और अचानक उन्हें सांस लेने में तकलीफ हुई। उनकी मृत्यु ने पूरी फिल्म इंडस्ट्री को स्तब्ध कर दिया। उनकी उम्र सिर्फ 51 वर्ष थी, लेकिन अपने छोटे से करियर में उन्होंने जो छाप छोड़ी, वह कालजयी बन गई।
TheTrendingPeople के अंतिम विचार:
TheTrendingPeople का मानना है कि अमजद ख़ान जैसे कलाकार विरले होते हैं। उन्होंने न केवल ‘गब्बर सिंह’ जैसे ऐतिहासिक खलनायक को अमर किया, बल्कि नवाब वाजिद अली शाह जैसे गूढ़ और शांतिप्रिय किरदारों को भी जीवंतता दी। अभिनय में उनकी विविधता, संवाद अदायगी और भावनाओं की गहराई ने भारतीय सिनेमा को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया। आज जब हम ओटीटी के युग में चरित्रों की गहराई की बात करते हैं, तो अमजद ख़ान की परफॉर्मेंस एक आदर्श बनकर सामने आती है। भारतीय सिनेमा उन्हें कभी नहीं भूल सकता — वह एक अभिनेता नहीं, एक युग थे।