मुंबई, 20 जुलाई। हिंदी फिल्म संगीत के स्वर्णिम युग में कुछ संगीतकार ऐसे हुए, जिनकी मौलिकता ने उन्हें अमर बना दिया। उनमें एक नाम है – सज्जाद हुसैन, जिन्हें 'मैंडोलिन का जादूगर' कहा जाता है। 21 जुलाई उनकी पुण्यतिथि है और यह दिन उस संगीतकार को याद करने का दिन है, जिसने बहुत कम लेकिन बेहद खास काम किया।
1917 में मध्य प्रदेश के सीतामऊ में जन्मे सज्जाद हुसैन का संगीत से गहरा नाता बचपन से ही रहा। उनके पिता सितार बजाते थे और उन्हीं से उन्होंने सुरों की पहली तालीम पाई। किशोरावस्था तक वे 20 से ज्यादा वाद्य यंत्रों में दक्ष हो चुके थे, लेकिन उन्होंने मैंडोलिन को अपनी विशेषता बनाया और इसे भारतीय शास्त्रीय रागों के साथ प्रस्तुत कर उसे एक नई पहचान दी।
1944 में फिल्म 'दोस्त' से उनका करियर शुरू हुआ, लेकिन 1950 की 'खेल' और 1951 की 'हलचल' ने उन्हें एक गंभीर और संवेदनशील संगीतकार के रूप में स्थापित किया। 'भूल जा ऐ दिल मोहब्बत का फसाना' और 'आज मेरे नसीब ने मुझको रुला दिया' जैसे गीत आज भी सच्चे संगीत प्रेमियों के लिए खजाने जैसे हैं।
'संगदिल' (1952) में उन्होंने राग खमाज और कलावती के मेल से जो प्रयोग किया, वह उस दौर में दुर्लभ था। 'रुस्तम-सोहराब' (1963) उनकी आखिरी प्रमुख फिल्म रही, जिसमें उन्होंने एक बार फिर अपने जादुई संगीत से सबको चकित किया।
सज्जाद हुसैन अपनी शर्तों पर काम करने वाले कलाकार थे। उन्हें न तो किसी का अनुकरण करना मंजूर था, न ही किसी दबाव में आकर समझौता करना। यही कारण रहा कि उन्होंने गिने-चुने प्रोजेक्ट्स किए, लेकिन जो भी किया, वह बेहद उच्च दर्जे का था। उनके लिए संगीत एक तपस्या थी, जिसे वे पूर्णता के स्तर पर ले जाना चाहते थे।
लता मंगेशकर जैसे दिग्गज गायिका ने भी उन्हें अपना सबसे कठिन लेकिन श्रेष्ठ संगीतकार माना। लता ने बताया था कि सज्जाद साहब के साथ काम करना एक चुनौती थी, लेकिन उनके धुनों में जो गहराई और सौंदर्य था, वह अद्वितीय था। सज्जाद का परफेक्शन के प्रति आग्रह कई बार उन्हें कठोर बना देता था, लेकिन यही उनकी शैली भी थी।
उनका एक वाक्य बहुत प्रसिद्ध है –
"अरे भाई, कम से कम साज के साथ तो मेल बैठाओ!"
यह वाक्य उनके संगीत की शुद्धता और संवेदनशीलता को दर्शाता है।
सिर्फ दो दशकों में सीमित काम करने के बावजूद, सज्जाद हुसैन की संगीत यात्रा एक मिसाल है। उन्होंने साबित किया कि गुणवत्ता, संख्याओं से कहीं ऊपर होती है। उनकी रचनाएं तकनीकी दृष्टि से जटिल, लेकिन भावनात्मक रूप से अत्यंत समृद्ध थीं। यही कारण है कि संगीत प्रेमियों के बीच उनकी धुनें आज भी जीवित हैं।
21 जुलाई 1995 को सज्जाद हुसैन का निधन हुआ, लेकिन उनकी धुनें आज भी जीवंत हैं और भारतीय फिल्म संगीत में उनकी उपस्थिति एक अनोखे अध्याय के रूप में दर्ज है।
TheTrendingPeople का अंतिम विचार:
सज्जाद हुसैन की विरासत यह सिखाती है कि कला में आत्मसम्मान और मौलिकता सबसे बड़ा गुण है। उन्होंने कभी समझौता नहीं किया और न ही भीड़ में शामिल हुए। उन्होंने जो रचा, वह आज भी कालातीत है। उनकी सीमित रचनाएं इस बात का प्रमाण हैं कि "कम में भी उत्कृष्टता संभव है, बशर्ते आप ईमानदारी और जुनून से काम करें।" सज्जाद हुसैन सिर्फ संगीतकार नहीं थे, वे खुद में एक संगीतमय क्रांति थे।