रेबीज उन्मूलन लक्ष्य 2030: 80% सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों में वैक्सीन उपलब्ध, चुनौतियां बरकरार
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नई दिल्ली: भारत में 2030 तक रेबीज उन्मूलन के महत्वाकांक्षी लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है। इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के एक नए अध्ययन में सामने आया है कि देश के करीब 80 प्रतिशत सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों में एंटी-रेबीज वैक्सीन (ARV) उपलब्ध है। यह जानकारी प्रतिष्ठित मेडिकल जर्नल 'द लैंसेट रीजनल हेल्थ, दक्षिण पूर्व एशिया' में प्रकाशित हुई है, जो रेबीज नियंत्रण प्रयासों की वर्तमान स्थिति को दर्शाती है।
अध्ययन के प्रमुख निष्कर्ष: वैक्सीन की उपलब्धता
अध्ययन में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि रेबीज के मामलों को प्रभावी ढंग से रोकने के लिए पशु के काटने के बाद की रोकथाम (Post-Exposure Prophylaxis - PEP) का सुलभ और किफायती होना बेहद जरूरी है।
अध्ययन के प्रमुख लेखक और आईसीएमआर-नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एपिडेमियोलॉजी के निदेशक डॉ. मनोज मुर्हेकर के अनुसार, "हमने पाया कि देश के लगभग 80 प्रतिशत सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों में एंटी-रेबीज वैक्सीन उपलब्ध थी।" यह एक सकारात्मक संकेत है कि प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा स्तर पर वैक्सीन की पहुंच में सुधार हुआ है।
रेबीज की स्थिति: मौतें घटीं, मामले अभी भी चिंताजनक
आईसीएमआर के आंकड़ों के अनुसार, भारत में रेबीज से होने वाली मौतों में 75 प्रतिशत की उल्लेखनीय गिरावट दर्ज की गई है। यह राष्ट्रीय रेबीज नियंत्रण कार्यक्रम और जागरूकता अभियानों की सफलता को दर्शाता है। फिर भी, हर साल लगभग 5,700 लोग इस बीमारी से जान गंवाते हैं, जो अभी भी एक बड़ी संख्या है। इसके अलावा, देश में करीब 90 लाख पशु काटने के मामले सामने आते हैं, जो रेबीज के जोखिम को बनाए रखते हैं।
सर्वेक्षण का दायरा और उपलब्धता में भिन्नता
यह सर्वे 15 राज्यों के 60 जिलों में किया गया, जिसमें कुल 534 स्वास्थ्य केंद्रों को शामिल किया गया। इनमें से 467 (87.5 प्रतिशत) केंद्र सार्वजनिक क्षेत्र के थे। अध्ययन में वैक्सीन और इम्युनोग्लोब्युलिन की उपलब्धता में क्षेत्रीय भिन्नता भी सामने आई:
एंटी-रेबीज वैक्सीन (ARV) की उपलब्धता: यह 60 प्रतिशत से लेकर 93.2 प्रतिशत तक भिन्न रही। सबसे कम उपलब्धता शहरी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में पाई गई, जो शहरी गरीबों और प्रवासी आबादी के लिए चिंता का विषय हो सकता है।
रेबीज इम्युनोग्लोब्युलिन (RIG) की उपलब्धता: यह केवल 95 सार्वजनिक केंद्रों में उपलब्ध था, जो कुल का एक छोटा हिस्सा है। इसमें सबसे अधिक उपलब्धता दक्षिण भारतीय राज्यों में रही। मेडिकल कॉलेज अस्पतालों में इसकी उपलब्धता 69.2 प्रतिशत तक पहुंची, जबकि शहरी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में यह महज 1.8 प्रतिशत रही। रेबीज इम्युनोग्लोब्युलिन उन मामलों में महत्वपूर्ण होता है जहां काटने का घाव गहरा होता है या केंद्रीय तंत्रिका तंत्र के करीब होता है। इसकी सीमित उपलब्धता एक बड़ी चुनौती है।
क्षेत्रीय भिन्नता: डॉ. मुर्हेकर ने बताया कि उत्तर-पूर्वी भारत में वैक्सीन की उपलब्धता सबसे कम थी, जबकि दक्षिण भारत में सबसे अधिक रही। यह क्षेत्रीय असमानताओं को उजागर करता है जिन्हें दूर करने की आवश्यकता है।
डोज रेजीम और चुनौतियां
अध्ययन में यह भी पाया गया कि दो-तिहाई सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों ने डोज-बचाने वाले 'इंट्राडर्मल' (IDRV) रेजीम को अपनाया है, जबकि बाकी अभी भी पुराने 'इंट्रामस्कुलर' (IMRV) रेजीम पर चल रहे हैं। इंट्राडर्मल रेजीम कम वैक्सीन का उपयोग करता है और अधिक लागत प्रभावी होता है, जिससे वैक्सीन की उपलब्धता बढ़ाई जा सकती है।
शोधकर्ताओं ने यह भी चेतावनी दी कि यदि किसी व्यक्ति को पशु के काटने के बाद वैक्सीन समय पर नहीं मिलती है, तो वह बिना टीका लिए ही घर लौट सकता है, जिससे रेबीज नियंत्रण के प्रयास कमजोर पड़ सकते हैं और बीमारी फैलने का जोखिम बढ़ सकता है।
आगे की राह: 2030 के लक्ष्य को प्राप्त करना
अध्ययन में यह स्पष्ट सुझाव दिया गया कि भारत को 2030 तक कुत्तों से होने वाली मानव रेबीज मृत्यु को शून्य करने के लक्ष्य को पाने के लिए एंटी-रेबीज वैक्सीन और इम्युनोग्लोब्युलिन की उपलब्धता में अंतर को पाटने की तत्काल आवश्यकता है। इसमें शामिल हैं:
सभी सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों, विशेष रूप से शहरी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में वैक्सीन और इम्युनोग्लोब्युलिन की समान उपलब्धता सुनिश्चित करना।
इंट्राडर्मल रेजीम को व्यापक रूप से अपनाना।
जागरूकता कार्यक्रमों को बढ़ाना ताकि लोग पशु के काटने के बाद तुरंत चिकित्सा सहायता लें।
आवारा कुत्तों की आबादी नियंत्रण और टीकाकरण कार्यक्रमों को मजबूत करना।
निष्कर्ष
आईसीएमआर का यह अध्ययन भारत में रेबीज नियंत्रण प्रयासों की प्रगति और शेष चुनौतियों दोनों को उजागर करता है। 80% सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्रों में एंटी-रेबीज वैक्सीन की उपलब्धता एक सकारात्मक कदम है, लेकिन रेबीज इम्युनोग्लोब्युलिन की सीमित पहुंच और क्षेत्रीय असमानताएं अभी भी चिंता का विषय हैं। 2030 तक रेबीज उन्मूलन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, सरकार और स्वास्थ्य एजेंसियों को इन अंतरालों को पाटने, जागरूकता बढ़ाने और सभी स्तरों पर गुणवत्तापूर्ण देखभाल सुनिश्चित करने के लिए समन्वित प्रयास करने होंगे।