अमेरिका-चीन व्यापार समझौता: क्या भारत फिर चूक जाएगा मौका?
दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं – अमेरिका और चीन – एक बार फिर टकराव के बाद समझौते की राह पर लौट आई हैं। इस समझौते से जहां वैश्विक बाजारों ने राहत की सांस ली है, वहीं भारत के सामने नए अवसरों और चुनौतियों की एक नई श्रृंखला खड़ी हो गई है।
क्या है अमेरिका-चीन समझौते की बड़ी बात?
हालिया समझौते में अमेरिका ने चीन से आयात पर लगने वाले टैरिफ को 145% से घटाकर 30% करने का फैसला किया है। जवाब में, चीन ने अमेरिकी उत्पादों पर अपने टैरिफ को 125% से घटाकर 10% कर दिया है। इससे दोनों देशों के बीच व्यापारी तनाव में काफी नरमी आई है। इस खबर के आते ही वैश्विक बाजारों में 2% से लेकर 3.8% तक की तेजी देखी गई।
यह फैसला अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प द्वारा फरवरी में घोषित कठोर टैरिफ के ठीक उलट है। उस वक्त उन्होंने चीन, मैक्सिको और कनाडा से आयात पर भारी शुल्क लगाने की घोषणा की थी। लेकिन अब 90 दिनों के लिए राहत दी गई है और बातचीत के दरवाजे फिर खुल गए हैं।
भारत के लिए क्या मायने रखता है ये समझौता?
भारत के लिए यह समझौता मिश्रित संकेत देता है। एक ओर अगर अमेरिका और चीन के बीच वार्ता सकारात्मक दिशा में बढ़ती है, तो चीन में निवेश और मैन्युफैक्चरिंग का माहौल फिर से बेहतर हो सकता है। इसका असर भारत के उस अवसर पर पड़ेगा, जो उसे चीन+1 रणनीति के तहत मिला था – यानी विदेशी कंपनियों के चीन से हटकर भारत जैसे देशों में उत्पादन शुरू करने की संभावना।
हकीकत यह है कि भारत अब तक इस मौके का पूरा फायदा नहीं उठा पाया। निवेशकों की नजर में भारत अब भी महंगा, नीतिगत रूप से जटिल और धीमी गति से बदलता देश है।
अमेरिका-भारत व्यापार संबंध: अनिश्चित भविष्य
इस बीच, भारत और अमेरिका के बीच भी व्यापार को लेकर तनाव बरकरार है। भारत ने विश्व व्यापार संगठन (WTO) को अमेरिका द्वारा इस्पात और एल्युमीनियम पर लगाए गए टैरिफ के जवाब में पारस्परिक जवाबी कार्रवाई की जानकारी दी है। इससे यह स्पष्ट होता है कि भारत-अमेरिका व्यापार समझौता अभी लंबा रास्ता तय करने वाला है।
निश्चितताएं क्या हैं?
इस पूरे घटनाक्रम में दो बातें भारत के लिए स्पष्ट हैं:
1. भारत-चीन व्यापार घाटा घटने वाला नहीं
भारत का चीन के साथ व्यापार घाटा बेहद बड़ा और लगातार बढ़ता जा रहा है। ‘मेक इन इंडिया’ जैसे कार्यक्रम अब भी ‘चीन से आयात’ पर निर्भर हैं। चीन की सस्ते उत्पादों की सप्लाई चेन इतनी मजबूत है कि भारतीय कंपनियों को उनसे प्रतिस्पर्धा करना मुश्किल हो रहा है।
2. सुधारों की ज़रूरत अब और भी ज्यादा
अगर भारत सच में वैश्विक मैन्युफैक्चरिंग का केंद्र बनना चाहता है, तो उसे भूमि और श्रम सुधारों में तेजी लानी होगी। राज्यों को निवेश-मैत्री माहौल बनाना होगा ताकि भारत की उत्पादन लागत वैश्विक मानकों पर उतर सके।
निष्कर्ष: अवसर अभी भी ज़िंदा है, लेकिन समय सीमित है
अमेरिका-चीन समझौता भारत के लिए एक चेतावनी है – अगर अभी भी सही नीतिगत कदम नहीं उठाए गए, तो भारत एक और ऐतिहासिक अवसर को खो देगा।
चीन+1 रणनीति अब भी जिंदा है, लेकिन उसकी चमक फीकी पड़ रही है। भारत को चाहिए कि वह अपने आंतरिक ढांचे को मजबूत करे, सुधारों को लागू करे और निवेशकों के लिए भरोसेमंद गंतव्य बने।
यह केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि राज्यों और नीति निर्माताओं की सामूहिक जवाबदेही है। यदि भारत अगले पांच वर्षों में अपनी नीतियों में सुधार नहीं करता, तो वह सिर्फ "संभावना" बना रह जाएगा, "विकास" नहीं।