अहम किरदार: क्या 2025 की जाति जनगणना भारत को बदलने जा रही है?
जाति जनगणना: एक ऐतिहासिक पड़ाव या राजनीतिक प्रयोग?
2025 में, भारत एक ऐतिहासिक सामाजिक प्रयोग के मुहाने पर खड़ा है—जाति आधारित जनगणना। 1931 के बाद यह पहली बार है जब केंद्र सरकार देश के नागरिकों की जाति दर्ज करने जा रही है। यह कदम राजनीतिक बहस, सामाजिक सुधार, और नीतिगत बदलाव की दिशा में एक बड़ा मोड़ साबित हो सकता है। लेकिन इसके साथ ही यह कई जटिल चुनौतियों और जोखिमों को भी जन्म दे रहा है।
जातिगत आंकड़ों की वापसी: क्यों जरूरी मानी जा रही है?
अब तक की जनगणनाएं नागरिकों को केवल अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) और धर्म के आधार पर वर्गीकृत करती रही हैं। अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए कोई समर्पित डेटा उपलब्ध नहीं था, जिससे सामाजिक न्याय की योजनाओं को ठीक से लागू करना मुश्किल होता था।
2025 की जाति जनगणना इस डेटा गैप को भरने की कोशिश है। इससे यह पता चलेगा कि किन जातियों को वास्तविक लाभ मिल रहा है और कौन-से समुदाय अब भी वंचित हैं।
क्रीमी लेयर और उप-श्रेणीकरण: गहराता मतभेद
OBC वर्ग में क्रीमी लेयर को बाहर करने की मांग लंबे समय से चल रही है। इसके साथ ही, SC-ST और OBC वर्गों के भीतर उप-श्रेणीकरण की बहस तेज़ हुई है।
सुप्रीम कोर्ट ने 2024 में SC और ST के भीतर उप-श्रेणीकरण की अनुमति देकर इस बहस को नई दिशा दी।
जस्टिस जी. रोहिणी आयोग ने OBC के उप-श्रेणीकरण पर रिपोर्ट सौंप दी, जिसे सरकार अब तक सार्वजनिक नहीं कर पाई है।
इससे सामाजिक न्याय के मॉडल की पारदर्शिता और विश्वसनीयता पर सवाल उठ रहे हैं।
राजनीतिक नफा-नुकसान: पार्टियों की दोहरी नीति
जातिगत जनगणना को लेकर बिहार, कर्नाटक, और तेलंगाना जैसे राज्यों ने पहल ली है, लेकिन केंद्र सरकार अब तक फूंक-फूंक कर कदम रख रही थी।
हालांकि 2025 के लोकसभा चुनाव के बाद सत्ता में वापसी के साथ, नई गठबंधन सरकार ने सहमति जताई है कि जातिगत जनगणना को आगे बढ़ाया जाएगा। सभी प्रमुख दल—चाहे बीजेपी हो या कांग्रेस, समाजवादी पार्टी हो या DMK—अब इस मुद्दे पर सैद्धांतिक रूप से एकमत दिख रहे हैं।
यह बात ज़ाहिर करती है कि जाति जनगणना अब केवल सामाजिक मुद्दा नहीं, बल्कि एक चुनावी गणित भी बन गया है।
जमीनी हकीकत: डेटा की विश्वसनीयता कैसे सुनिश्चित होगी?
जातिगत पहचान और नामों को एकरूप बनाना भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में बेहद चुनौतीपूर्ण है।
1. 2011 के SECC (Socio-Economic and Caste Census) में 46 लाख जातियों की एंट्री दर्ज की गई थी—जो कि अव्यवहारिक है।
2. अलग-अलग राज्यों में एक ही जाति के नाम अलग-अलग हो सकते हैं। जैसे, उत्तर भारत में 'माली' और महाराष्ट्र में 'गवली'—क्या ये एक ही सामाजिक समूह हैं?
इस भ्रम को दूर करने के लिए सरकार को मजबूत वर्गीकरण प्रणाली, भाषा आधारित समानता, और क्षेत्रीय विशेषज्ञों की मदद से एक सटीक डाटा मैपिंग सिस्टम तैयार करनी होगी।
फायदे और संभावनाएं: क्या यह सामाजिक न्याय को गति देगा?
अगर जाति जनगणना सही ढंग से और पारदर्शी रूप से होती है, तो इसके बड़े फायदे हो सकते हैं:
- सटीक आरक्षण नीति बनाई जा सकती है।
- छोटे और पिछड़े समुदायों को भी योजनाओं में प्रत्यक्ष लाभ मिलेगा।
- सामाजिक योजनाएं डेटा-संचालित और टारगेटेड बन सकेंगी।
संभावित खतरे: सामाजिक विभाजन और राजनीतिक ध्रुवीकरण
हालांकि इससे डेटा आधारित नीति निर्माण आसान होगा, लेकिन इससे सामाजिक ध्रुवीकरण और राजनीतिक जातिवाद को भी बढ़ावा मिल सकता है।
हर जाति अपने-अपने हिस्से और अधिकार की मांग करेगी। इससे जाति समूहों में प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और सामाजिक संतुलन बिगड़ सकता है।
2025 में आगे की राह: केंद्र सरकार की भूमिका अहम
अब जब अधिकतर राजनीतिक दल जातिगत जनगणना के पक्ष में हैं, केंद्र सरकार को चाहिए कि:
- एक स्वतंत्र जाति आयोग का गठन करे,
- ट्रांसपेरेंट डेटा कलेक्शन मेथड अपनाए,
- और इसे पार्टी पॉलिटिक्स से अलग रखे।
यह जनगणना भारत के सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने को बदलने का अवसर है, लेकिन इसे गंभीर जिम्मेदारी के साथ ही अंजाम दिया जा सकता है।
निष्कर्ष
जातिगत जनगणना 2025 भारत के लिए एक ऐतिहासिक प्रयोग है। यह सामाजिक न्याय को नया आधार दे सकती है, बशर्ते इसे राजनीतिक औजार बनने से रोका जाए। सरकार और समाज को अब मिलकर यह तय करना होगा कि जाति को समानता का आधार बनाएं या विभाजन का हथियार।