हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की दुनिया में कुछ ऐसी आवाज़ें होती हैं, जो केवल राग गाकर मंच नहीं भरतीं, बल्कि समाज की चुप दीवारों को भी तोड़ देती हैं। ऐसी ही एक आवाज थीं गंगूबाई हंगल। जिन्हें कभी ताना मारकर ‘गानेवाली’ कहा गया था, वही आज भारतीय संगीत के इतिहास में एक अमिट अध्याय बन चुकी हैं। 21 जुलाई को उनकी पुण्यतिथि पर पूरा संगीत जगत उन्हें श्रद्धांजलि देता है।
गंगूबाई हंगल का जन्म 5 मार्च 1913 को कर्नाटक के धारवाड़ में एक केवट परिवार में हुआ था। उनका बचपन आर्थिक तंगी और सामाजिक भेदभाव के बीच गुज़रा। उनकी मां अंबाबाई कर्नाटक संगीत की गायिका थीं, जिन्होंने गंगूबाई को बचपन से संगीत की ओर प्रेरित किया। मात्र 13 साल की उम्र में गंगूबाई ने किराना घराने के महान उस्ताद सवाई गंधर्व से संगीत की औपचारिक शिक्षा लेनी शुरू की।
हालांकि, उनका यह सफर आसान नहीं था। उन्हें समाज से 'गानेवाली' जैसे अपमानजनक शब्दों का सामना करना पड़ा। उस दौर में एक निम्न जाति की महिला का मंच पर गाना न केवल अस्वीकार्य था, बल्कि अपमानजनक भी समझा जाता था। लेकिन गंगूबाई ने कभी हार नहीं मानी। उन्होंने अपनी गहराई और आत्मीयता से भरी गायकी से आलोचकों को भी श्रोता बना दिया।
गंगूबाई हंगल की आत्मकथा ‘ए लाइफ इन थ्री ऑक्टेव्स: द म्यूजिकल जर्नी ऑफ गंगूबाई हंगल’ में उनके संघर्षों और संगीत की साधना का विस्तार से ज़िक्र है। उनकी आवाज़ गहरी, स्थिर और शुद्ध भावना से परिपूर्ण थी। उन्होंने जिस तरह से रागों को खुलने दिया, वह बिल्कुल वैसा ही था जैसे सुबह की पहली किरण धीरे-धीरे अंधेरे को मिटाती है।
उनका करियर 1930 के दशक में मुंबई में गणेश उत्सवों और छोटे मंचों से शुरू हुआ। धीरे-धीरे वे ऑल इंडिया रेडियो, राष्ट्रीय संगीत समारोहों और अंतरराष्ट्रीय मंचों की प्रमुख आवाज बन गईं। शुरुआत में उन्होंने भजन और ठुमरी गाया, लेकिन बाद में वे केवल खयाल और राग-गायन में ही रम गईं। उनकी गायकी ने किराना घराने को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया।
उनकी कला और योगदान को देशभर में पहचाना गया। साल 1962 में कर्नाटक संगीत नृत्य अकादमी पुरस्कार से उन्हें सम्मानित किया गया। 1971 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण और 2002 में पद्म विभूषण से नवाज़ा। इसके अलावा संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार (1973), फेलोशिप (1996), दीनानाथ प्रतिष्ठान (1997) और माणिक रत्न पुरस्कार (1998) जैसे प्रतिष्ठित सम्मान भी उन्हें मिले।
उनकी स्मृति को सहेजने के लिए कर्नाटक सरकार ने 2008 में 'कर्नाटक स्टेट डॉ. गंगूबाई हंगल म्यूजिक एंड परफॉर्मिंग आर्ट्स यूनिवर्सिटी' की स्थापना की। वहीं, 2014 में भारत सरकार ने उनकी याद में एक डाक टिकट जारी किया, जो उनकी विरासत को अमर करता है।
गंगूबाई हंगल का निजी जीवन भी बेहद संघर्षपूर्ण रहा। 16 साल की उम्र में शादी, 20 की उम्र में पति का निधन और आगे चलकर बेटी कृष्णा की कैंसर से मौत – ये तमाम घटनाएं भी उनके हौसले को नहीं तोड़ पाईं। संगीत ही उनका संबल रहा। साल 2006 में उन्होंने 75 साल के अपने संगीत सफर का जश्न मनाते हुए आखिरी प्रस्तुति दी।
21 जुलाई 2009 को 97 वर्ष की आयु में उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा। लेकिन उनकी आवाज आज भी रियाज़ के हर कमरे में, हर मंच पर, और हर श्रोता के दिल में गूंजती है।
TheTrendingPeople का Final Thought:
गंगूबाई हंगल केवल एक महान गायिका नहीं थीं, बल्कि वो एक सामाजिक क्रांति की प्रतीक थीं। उन्होंने उस दौर में मंच पर जगह बनाई जब स्त्रियों की आवाज़ को दबाया जाता था। उनकी यात्रा हमें सिखाती है कि कठिनाइयों से लड़कर अपने सपनों को कैसे जिया जाता है। उनकी गायकी न सिर्फ कानों को, बल्कि आत्मा को छूती है। आज, जब भी किसी शास्त्रीय प्रस्तुति में राग की गंभीरता सुनाई देती है, वहां कहीं न कहीं गंगूबाई की छाया ज़रूर होती है।