नई दिल्ली, 26 जुलाई 2025 — असम की फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल्स (विदेशी न्यायाधिकरण) पर गंभीर आरोप लगाते हुए एक नई रिपोर्ट में कहा गया है कि ये अर्ध-न्यायिक संस्थाएं नागरिकता तय करने की प्रक्रिया में न केवल संविधानिक सुरक्षा उपायों की अनदेखी कर रही हैं, बल्कि व्यापक स्तर पर लोगों को न्याय से वंचित कर रही हैं। रिपोर्ट में यह चेतावनी भी दी गई है कि यदि देशव्यापी एनआरसी (नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स) की प्रक्रिया शुरू की जाती है, तो इससे बड़े स्तर पर नागरिकता संकट खड़ा हो सकता है।
यह रिपोर्ट बेंगलुरु स्थित नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी (NLSIU) और क्वीन मैरी यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन द्वारा तैयार की गई है और इसे आधिकारिक रूप से रविवार, 27 जुलाई 2025 को जारी किया जाएगा। इसका शीर्षक है — ‘Unmaking Citizens: The Architecture of Rights Violations and Exclusion in India’s Citizenship Trials’।
1. संविधान के खिलाफ नागरिकता की जांच
रिपोर्ट के प्रमुख लेखक मोहसिन आलम भट, अरुषि गुप्ता और शरदुल गोपुजकर ने बताया कि नागरिकता निर्धारण जैसी गंभीर प्रक्रिया को ऐसे ट्रिब्यूनल के हवाले कर देना जो न तो कानूनी रूप से स्वतंत्र हैं, न ही पर्याप्त योग्यता वाले अधिकारियों से संचालित होते हैं — यह संविधान के अनुच्छेदों, विशेषकर न्याय की निष्पक्ष प्रक्रिया के सिद्धांत का घोर उल्लंघन है।
रिपोर्ट के मुताबिक, असम में अब तक 1.66 लाख लोगों को 'विदेशी' घोषित किया जा चुका है, और करीब 85,000 से ज्यादा मामले लंबित हैं। साथ ही, एनआरसी से बाहर हुए 10 लाख से ज्यादा लोग इन ट्रिब्यूनल्स में अपील कर सकते हैं।
2. निर्णय प्रक्रिया में व्यापक अनियमितता
रिपोर्ट में गौहाटी हाईकोर्ट के 1,200 से ज्यादा आदेशों, सुप्रीम कोर्ट के फैसलों और वकीलों व याचिकाकर्ताओं के इंटरव्यू के विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकला कि ट्रिब्यूनल्स में निर्णय प्रक्रिया में व्यापक रूप से अनियमितता है। साक्ष्यों को बिना पर्याप्त आधार के खारिज करना, मौखिक और दस्तावेजी गवाहियों को नजरअंदाज करना और कानूनी मानदंडों की अनुपस्थिति जैसी गंभीर समस्याएं उजागर हुई हैं।
3. ‘न्यायिक स्वतंत्रता’ का अभाव
अध्ययन में कहा गया है कि फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल्स में नियुक्त अधिकारी पर्याप्त योग्यता नहीं रखते, कार्यकाल अस्थायी है और नियुक्तियों में पारदर्शिता नहीं है। असम में 100 ट्रिब्यूनल्स हैं, जिनमें से 36 स्थायी और 54 अस्थायी हैं, जिनका कार्यकाल गृह मंत्रालय की इच्छा पर निर्भर करता है।
गौहाटी हाईकोर्ट और राज्य सरकार की अधिसूचनाओं के अनुसार, ट्रिब्यूनल के सदस्यों की नियुक्ति 1 या 2 वर्षों के लिए होती है और इसे राज्य की मर्जी से बढ़ाया जा सकता है। रिपोर्ट में कहा गया कि यह व्यवस्था न केवल न्यायिक स्वतंत्रता के खिलाफ है, बल्कि सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले का भी उल्लंघन है जिसमें 5 साल से कम कार्यकाल को न्याय की गुणवत्ता के लिए खतरा बताया गया है।
4. योग्यता में गिरावट
2011 तक केवल सेवानिवृत्त न्यायिक अधिकारी, जिन्हें नागरिक व आपराधिक प्रक्रिया की समझ होती थी, नियुक्त किए जाते थे। लेकिन 2015 में यह नियम बदला गया और अब कम से कम 10 साल का अनुभव रखने वाले अधिवक्ता भी पात्र हो गए।
2019 में यह मानदंड और भी कमजोर कर दिए गए: न्यूनतम अनुभव 7 साल, न्यूनतम आयु 35 वर्ष, और वेतन फिक्स्ड मासिक। रिपोर्ट के अनुसार, इस बदलाव से जटिल नागरिकता मामलों में अनुभवहीन वकील भी निर्णय लेने लगे हैं, जिससे न्याय की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है।
5. असमिया भाषा की जानकारी, लेकिन कानून की नहीं
हालांकि गौहाटी हाईकोर्ट ने ट्रिब्यूनल सदस्य बनने के लिए "असम की आधिकारिक भाषा का उचित ज्ञान" और "असम के इतिहास और विदेशी मुद्दों की समझ" जैसी शर्तें जोड़ी हैं, लेकिन नागरिकता कानून या प्रवासन कानून की विशेषज्ञता को अनिवार्य नहीं बनाया गया है, जो चिंता का विषय है।
6. नए इमिग्रेशन कानून के बावजूद पुरानी प्रक्रियाएं
2025 में संसद द्वारा इमिग्रेशन एंड फॉरेनर्स एक्ट पारित किए जाने के बावजूद, नागरिकता निर्धारण की प्रक्रिया में कोई बदलाव नहीं आया है। रिपोर्ट में इस बात पर खास चिंता जताई गई है कि जब एनआरसी जैसे देशव्यापी अभ्यास की संभावनाएं बन रही हैं और असम में हाल ही में ‘पुशबैक डिपोर्टेशन्स’ की घटनाएं हो रही हैं, तब इस प्रकार की न्यायिक विफलताएं हजारों लोगों को नागरिकता से वंचित कर सकती हैं।
7. क्या चाहिए: एक मौलिक पुनर्विचार
रिपोर्ट का स्पष्ट निष्कर्ष है कि भारत में नागरिकता निर्धारण की वर्तमान प्रणाली — खासकर फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल्स — न केवल संविधान और कानून के सिद्धांतों का उल्लंघन करती हैं, बल्कि हजारों निर्दोष लोगों को 'विदेशी' करार देने की प्रक्रिया को वैधता देती हैं।
लेखकों ने संपूर्ण कानूनी ढांचे के मूलभूत पुनर्गठन की मांग करते हुए कहा है कि नागरिकता जैसे संवेदनशील विषयों के लिए स्वतंत्र, निष्पक्ष, और विधिक रूप से प्रशिक्षित निकायों की आवश्यकता है। जब नागरिकता छिन जाए तो व्यक्ति को प्रभावी कानूनी उपचार का अधिकार मिलना चाहिए — यही लोकतांत्रिक शासन की पहचान है।
निष्कर्ष:
इस रिपोर्ट से स्पष्ट है कि असम की फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल्स के माध्यम से नागरिकता निर्धारण का वर्तमान मॉडल न केवल असंवैधानिक है, बल्कि भविष्य में भारत में एनआरसी जैसे किसी भी अभ्यास के लिए खतरनाक नजीर बन सकता है। यदि इन संस्थानों में पारदर्शिता, योग्यता और संवैधानिक मूल्यों का समावेश नहीं किया गया, तो भारत में लाखों नागरिकों की पहचान, अधिकार और भविष्य सवालों के घेरे में आ सकते हैं।